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दो महर्षि, कला, संस्कृति और देवों की भूमि है कांठल, जिले का शौर्य देशभर में है प्रसिद्ध

Pratapgarh
दो महर्षि, कला, संस्कृति और देवों की भूमि है कांठल, जिले का शौर्य देशभर में है प्रसिद्ध
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प्रतापगढ़, हर साल की तरह इस साल भी प्रतापगढ़ के जिले बनने का जश्न मनाने जाने वाला है। प्रतापगढ़ जिले के 11 वेँ स्थापना दिवस को मनाने की तैयारी में जिला प्रशासन जुट चुका है। प्रतापगढ़ जिले के स्थापना दिवस और कांठल महोत्सव को लेकर इस बार भी जिला मुख्यालय पर दो दिनों तक उत्स्व मनाया जाएगा। प्रतापगढ़ जिले के बारे में आज हम आपको ऐसी महत्वपूर्ण जानकारी देने जा रहे है जिसके बारे में शायद बहुत ही कम लोग जानते होगें। जिले के स्थापना दिवस को महत्वपूर्ण बनाने के लिए हम जिले के बारे में आपको वह सब कुछ बताने जा रहे है जो आप सब जानना चाहते है। जिले के अनसुने किस्सों को जाने और इस बार के स्थापना दिवस को और भी रोचक और महत्वपूर्ण बनाए।

 

धर्मभूमि गोतमेश्वर ऋगवेद में है इसका वर्णन

जिला मुख्यालय से महज 25 किलोमीटर की दुरी पर स्तिथ अरनोद उपखंड मुख्यालय से महज 5 किलोमीटर की दुरी पर स्तिथ गोतमेश्वर महादेव मंदिर जो विश्व की अनोखी शिवलिंग है। देश में एक मात्र ऐसा शिव मंदिर है जहां खंडित शिवलिंग की पूजा आराधना की जाती है। गोतमेश्वर महादेव मंदिर का ऋगवेद में भी वर्णन किया गया है। उसमे बताया गया है की इसी गौतमेश्वर महादेव में ऋषि गौतम ने यहां तपस्या कर के गौ हत्या के पाप से मुक्ति पाई थी। बताया जाता है की इस स्थान पर स्तिथ मंदाकनी कुंड में स्वयं मां गंगा प्रकट हुई थी और इस कुंड में स्नान के बाद ऋषि गौतम को गौ हत्या के पाप से मुक्ति मिली थी। इसी मंदाकनी कुंड से पहाड़ियों के बिच लटकती चटानों के बिच करीब 80 फिट की गहराई में विराजित है गोतमेश्वर महादेव, गोतमेश्वर महादेव मंदिर में भी मुग़ल अताताई मुकबेल खां ने मंदिर को और शिवलिंग को तोड़ने का प्रयास किया था। बताया जाता है की शिवलिंग को नष्ट करने के प्रयास में वह स्वयं नष्ट हो गए और उनकी सेना भी नष्ट हो गई। वेदों के अनुसार इस धरती पर बौद्धधर्मावलम्बी भी आए, इसी लिए यहां बुद्धपूिर्णमा पर मेला लगता है, यह भूमि दक्षिणी राजस्थान का हरिद्वार भी कही जाती है, जनजाति संस्कृति के सारे कर्म जन्म, नामकरण, प्रेमप्रसंग, विवाह, झगडा (भांजकडा), मुक्तिकर्म सब यहां तय होते है।

 

ऋषि वाल्मीकि की तपों भूमि और सीता का वनवास भी इसी भूमि पर कटा

जिले के सीतामाता वन्य अभयारण ऋषि वाल्मीकि की तपोभूमि रही है, इस भूमि पर माता सीता ने वनवास काटा है लव कुश ने अपना बालयकाल यहां बिताया है। बताया जाता है की सीता माता यहीं धरती में समाई थी। लव कुश ने राम के अश्वमेघ घोड़े यही स्थित काले आम के पेड़ से बाँधा था। लक्ष्मण को जीवन दान देने वाली द्रोणाचल पर्वत पर पाई जाने वाली वाली संजीवनी बूटी यहां भी पाई जाती है। यह वन्य अभ्यारण औषधियों से भरा हुआ है।

 

दर्शन की भूमि है भंवरमाता में विराजित मां भ्रामरी

जिले के छोटीसादड़ी उपखंड क्षेत्र में विराजित मां भंवरमाता मंदिर एक दर्शनीय स्थान है। यहां विराजती मां भ्रामरी शक्तिपीठ में रूप में यहां विराजती है। इसके अलावा जिले में चन्द्रप्रभू, शांतिनाथ, पार्श्वनाथ, आदिनाथ, दादागुरु, यति मंदिर यहां लाडले लाल का लाल बाग, भाई जी का बाग यहां, काकाजी की दरगाह यहां, शकर कुई, मामाजी की बावडी यहां, बाईजी की मस्जिद यहां, बुआजी की पोल यहां। राजकुंवर दीपसिंह ईष्टदेव दीपनाथ, स्वयंभू गुप्तेशवर महादेव मंदिर भी विराजित है।

 

शौर्य में भी कम नहीं है कांठल की भूमि

प्रतापगढ के कुंवर दीपसिंह और बाघसिंह की बाघ की तरह जिनकी यशगाथा फैली है। रावत बाघसिंह की बहादूरी के किस्से कौन नहीं जानता है ? और वीर योद्धा जुझार लोकदेवता कल्लाजी राठौड़ की तो घर-घर में पूजा होती है। देवगढ़ के राजकुमार रावत बाघसिंह की वीरता का ही परिणाम था कि उसके जीते जी मुगल सेना चित्तौड़ किले में नहीं घुसपाई। इसका स्मारक चित्तौड किले के प्रथमद्वार पर है। जहां जुझार योद्धा राजकुमार बाघसिंह शहीद हुए। कुंवरदीपसिंह आजादी की लडाई में शहीद हुए थे। ऐसे ही कई रोचक किस्से है जिसमे जिले के शौर्य की चर्चा की जाती है।

 

अन्नदाताओं की भूमि है कांठल  

अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध है यहां की मुख्य पैदावार अफीम। जिसेलोग काला-सोना कहते है। उच्च कोटि का इतना उत्पादन कि विदेष तक अपनी पेठ रखता। सरकार निर्यात करती। तेन्दू पत्ता की आय वन विभाग कोकरोडो रु की होती। सागवान, बांस का खूब उत्पादन होता। उत्तरी भारत में सिर्फ यहां ही उडन गिलहरी पाई जाती। इसके साथ ही अन्नदाताओं की भूमि के नाम से भी कांठल प्रसिद्ध है। जिले में सभी प्रकार की फसलों की पैदावार होती है।

 

स्वर्ण-साधकों की भूमि कांठल, यहां होता है कांच पर कंचन का करिश्मा  

स्वर्णभूमि देवगढ के पास गांव सोहनी में सोने की खान थी। विष्वभर की नायाब खूबी हमारी थेवाकला से सब परिचित है। ऐसी कोई और कला नहीं है जिसने एक देश, एक प्रदेश, एक जिले, एक नगर, एक मोहल्ले, एक ही वंश, एक ही परिवार के कलाकारो को दस बार राष्ट्रपति पुरस्कार मिल चुका है। गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में दर्ज है। राजाओं महाराजााओं बादशाहों अंग्रेजों सबकेगले चढी है थेवा कला। विदेशी अंग्रेजी, पुस्तको में अंग्रेजो के म्यूजियम, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर तक प्रसिद्ध है थेवाकला। विदेषोंतक खूब बिकती इसकी कलाकृतियां।

लेखकः-चन्द्रशेखर मेहता 

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